लोगों की राय

हास्य-व्यंग्य >> मॉडर्न पंचतंत्र

मॉडर्न पंचतंत्र

सरदार मनजीत सिंह

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :117
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3553
आईएसबीएन :81-288-0860-5

Like this Hindi book 17 पाठकों को प्रिय

319 पाठक हैं

माननीय कछुआ जी की तालाब बदल प्रेस कान्फ्रेंस का वर्णन....

Modern panchtantara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

जब मेरा काव्य संग्रह ‘रांग नम्बर’ प्रकाशित हुआ, तो उसमें ‘पंचतंत्र का चूहा’ नामक व्यंग्य कविता भी सम्मिलित थी। इस रचना की विशेष बात इसका लीक से हटकर होना था। मेरी यह कविता पंचतंत्र की एक प्रसिद्ध कहानी पर आधारित है जिसमें एक साधु एक चूहे को पहले बिल्ली फिर कुत्ता तथा अंत में शेर बना देता है। किन्तु जब वह शेर उस साधु को मारने दौड़ता है तो वह पुनः उसे चूहा बना देता है। मेरी रचना में साधु उस चूहे को बिल्ली, कुत्ता तो बनाता ही है किंतु उसके बाद वह उसे पुलिस का सिपाही, पुलिस अधिकारी और मंत्री तक बना देता है। कथ्य में इतने मोड़ आने के बाद पंचतंत्र की यह कहानी यात्रा करती हुई वर्तमान में प्रवेश कर जाती है जहां वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य करने की गुंजाइश निकल आती है।

इस संग्रह की रचनाएं पंचतंत्र के युग को वर्तमान से जोड़ती हैं। इसी कारण मैंने इस संग्रह को ‘कलियुगी पंचतंत्र’ का नाम दिया है। मेरी इन कविताओं में कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो पंचतंत्र पर आधारित नहीं हैं। किन्तु इनके पात्र पंचतंत्र की कहानियों की तरह मुख्यतः पशु-पक्षी ही हैं। मैंने अपनी अधिकतर कविताओं में या तो मूल कथा में घुमाव दे दिए हैं या फिर पशु-पक्षियों को मानव रूप में प्रस्तुत किया है। आशा है यह पुस्तक सुधी पाठकों को पसंद आएगी।
अंत में मैं माननीय सुरेन्द्र जी का आभारी हूँ जिन्होंने भूमिका लिखकर देने में इंतजार नहीं करवाया। मेरी रचनाओं की प्रथम श्रोता जीवन-संगिनी सुरजीत तथा उन सभी का आभार व्यक्त करता हूँ जिनेक प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग से यह संग्रह आपके हाथों में है।

-मनजीत सिंह

शुभांश


एक अंग्रेजी कविता है—‘‘Laugh and the world will laugh with you/weep and you weep alone.’’  उन्हीं पंक्तियों का छायानुवाद में मैंने अपनी कविता संग्रह ‘विश्व कविता की ओर’ की ठहाके कविता में कुछ और पंक्तियां मिलाई थीं—‘‘हमने कहा था कभी/जिन्दगी भर रोने-धोने से/अच्छा है घड़ी भर मुस्कराना/ठहाके लगाना/मेरे दोस्त/और आज मैं खाली कर रहा हूं/ठहाकों से भरा खजाना/तुम्हारे लिए/आओ और जी भर लूटो/बहारों की तरह/ठहाकों को/हाँ, हमारी नीलामी/मत होने देना/मेरे दोस्त।’’

इन्हीं ठहाकों में स्मरण आते हैं हिन्दी हास्य के शीर्षस्थ कवि काका हाथरसी जिनकी मृत्यु ने कभी मुझसे भी एक हास्य व्यंग्य रचना लिखवा ली थी। कुछ पंक्तियाँ थीं—‘‘काका तुम ठहाका दे गए यमराज को भी/जो आया था अपनी भैंसगाड़ी लेकर/पर तुम पहले ही लेट गए थे/ऊँटनी गाड़ी पर....इस श्मशानी कवि सम्मेलन में/मुर्दों को भी हंसी आई है/और विश्व कविता को/ठहाका लगाती रुलाई आई है।

हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर ‘मंजीत सिंह’ के कविता संग्रह की चर्चा करते समय उपर्युक्त प्रसंग स्वतः स्मृतिपटल पर उभर आए। मंजीत शालीन, संयत, सुंदर तथा स्वस्थ हास्य कविता के चितेरे हैं जिसे वे प्रकृत तथा सम्प्रेषण शैली में कागज पर उतारते हैं। हंसते और हंसाते हैं। मंच संचालन का स्वरूप रूप देखना हो तो मंजीत को माइक पर देखो। तबीयत खुश हो जाएगी। फहड़पन से दूर उनका हास्य व्यंग्य गुदगुदाते तथा संदेश देकर आगे बढ़ जाता है। यह संदेश संग्रह में यत्र-तत्र उपस्थित है। उनका मॉर्डन पंचतंत्र’ पुनः मूषिको भव’ की बजाय संत्री को मंत्री बना देता है। इसी तरह पंचतंत्र के संदेश को नए परिदृश्य देता है तथा नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है।

-पद्मश्री डॉ.श्याम सिंह शशि

साहित्य में पशु-पक्षी


भारत के सांस्कृति जीवन में पशु-पक्षी पहले से ही प्रासंगिक रहे हैं। रामायण व महाभारत के काल में तो इन पशु-पक्षियों ने हमारे अवतारों व देवताओं के साथ सामाजिक सरोकारों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका समय-समय पर निभाई है। यही कारण है कि हमारे धार्मिक व सांस्कृति साहित्य में जीव-जन्तु स्वेच्छा से टहलते नजर आते हैं।

पशु-पक्षियों ने सदैव मनुष्यता को बलवान ही किया है और वे सदा से ही मनुष्य के काम आते रहे हैं। कभी देवता के भार को ढो कर तो कभी मनुष्य की महत्वकांक्षाओं का बोझा इधर-उधर पहुँचाकर तथा कभी
उसकी कोमल प्रेमिल संवेदनाओं को अपनी ‘कबूतर-कला’ से गन्तव्य तक पहुँचाते रहे हैं। पशु-पक्षियों ने स्वयं को बलिदान करके मनुष्य की उदरपूर्ति की। इस समस्त मौलिक देवत्व से भरे गुणों वाले पशु-पक्षियों का भाषायी प्रयोग मनुष्यों के बीच अपशब्दों के रूप में सामने आया। मदारियों की इंगितों पर नाचते मूक जीव-जन्तुओं ने अपनी कला से स्वार्थी मनुष्य का गला तक भरने का काम भी किया। संसार भर के हजारों सर्कसों में लाखों पशु-पक्षियों ने नायकों से ज्यादा तालियाँ और दाद अर्जित की और फिर दासों की तरह सलाखों के पीछे जीवन गुजारा। साहित्य के मंचीश कविताओं के अखाड़ेबाजों में जहां एक ओर श्रृंगार के मुद्राधर्मी कवियों ने उन्हें नख-शिख वर्णन में काम लिया है वहीं दूसरी ओर वीर-रस के कवियों ने अपनी घटाटोप वाणी में शत्रु-पक्ष को चूहा और स्वयं को ‘सिंहो का वंशज’ कह कर उपयोग में लिया। हास्य रस की परम्परा के महाकवि ओमप्रकाश ‘आदित्य’ ने अपनी कविताओं में पशु-पक्षियों का इतना अधिक वर्णन किया कि वे तो हास्य कवि की अपेक्षा ‘‘पशु-प्रेमी’’ कवि के रूप में ज्यादा लोकप्रिय हुए। इसी परम्परा में कविता की वाचिक-प्रवृत्ति में कुछ अन्य कवियों ने भी इस विषय को उठाया।

प्रिय सरदार मनजीत सिंह ने इस पुस्तक की अधिकांश कविताओं का प्रमुख पात्र पशु-पक्षियों को ही बनाया है। यद्यपि पशुत्व अत्यन्त निकृष्ट प्रवृत्ति है तथापि पशु-पक्षियों में मनुष्य के विकार प्रवेश कर जायें, तो वह इतना घिनौना, क्रूर, चालाक और कृतघ्न हो जाता है, जितनी मनुष्य भी पशुओं के गुण आने पर नहीं होता। इस कारण यह संग्रह एक सर्वथा नवीन दृष्टिकोण से रची गई रचनाओं का संग्रह है। लीक से हटकर चल रहा प्रिय मंजीत शायर है और सरदार होने के नाते कारण सिंह भी है और सपूत-तो अपने माता-पिता का होगा है। इस संग्रह के प्रकाशन पर प्रिय मंजीत को मेरी ढेर सारी शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद। पाठक इस संग्रह को पढ़कर प्रसन्न होंगे ऐसा मेरा विश्वास है।

सुरेन्द्र शर्मा

रामकिशोर मार्ग,
सिविल लाइन्स,
नई दिल्ली


सत्ता के दाने



बहेलिए
मुख्य मंत्री को बहुमत
सिद्ध करना था
इसलिए
उसने
सत्ता के दाने
बिखेर कर
अपना जाल फैलाया।
ये देखकर
एक छोटी पार्टी के
कुछ कबूतर विधायकों का
जी ललचाया।
एक बोला-
आओ,
सरकारी पार्टी के
चेयरमैनी दाने खाएं।
दूसरा बोला-
पहले
विरोधी खेमे का
जाल तो देख आएं।

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book